समलैंगिक विवाह पर पुनर्विचार याचिका: खुले कोर्ट में सुनवाई की मांग

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मुख्य न्यायाधीश की प्रतिक्रिया

भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने मंगलवार को समलैंगिक विवाह को वैध बनाने से इंकार करने वाले अपने बहुमत निर्णय की संविधान पीठ की पुनर्विचार याचिका को खुले कोर्ट में सुनने के लिए वकीलों के मौखिक अनुरोध को “ध्यान में रखने” का आश्वासन दिया, लेकिन इस पर कोई प्रतिबद्धता नहीं जताई।

वकीलों की अपील

सीनियर एडवोकेट्स मुकुल रोहतगी, नीरज किशन कौल, मेनका गुरुस्वामी, करुणा नंदी और अरुंधति काटजू ने मौखिक उल्लेख के दौरान मुख्य न्यायाधीश से आग्रह किया कि पुनर्विचार सुनवाई को बंद कमरे के बजाय खुले कोर्टरूम में किया जाए, जैसा कि आमतौर पर सर्कुलेशन द्वारा किया जाता है।

सार्वजनिक हित और समीक्षा प्रक्रिया

श्री कौल ने कहा कि यह अनुरोध इस मुद्दे में शामिल सार्वजनिक हित को ध्यान में रखते हुए किया गया था। हालांकि, एक समय पर मुख्य न्यायाधीश ने सुश्री नंदी की प्रस्तुति को रोकते हुए कहा कि यह एक संविधान पीठ के निर्णय की समीक्षा है, जिसे चैंबर्स में जांचा जाना चाहिए।

सेवानिवृत्त न्यायाधीशों का रिप्लेसमेंट

जस्टिस एस.के. कौल और एस. रवींद्र भट, जो पिछले साल अक्टूबर में दिए गए मूल संविधान पीठ के निर्णय में शामिल थे, अब सेवानिवृत्त हो चुके हैं। उनकी जगह संविधान पीठ में जस्टिस संजीव खन्ना और बी.वी. नागरत्ना लेंगे।

पुनर्विचार याचिका के तर्क

पुनर्विचार याचिकाओं में तर्क दिया गया कि उच्चतम न्यायालय का निर्णय समलैंगिक दंपतियों को वास्तविक परिवार की खुशियों से वंचित रखता है और उन्हें छिपे रहने और असत्य जीवन जीने के लिए मजबूर करता है।

न्यायालय का पूर्व निर्णय

पिछले साल 17 अक्टूबर को सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि वह न्यायिक शक्ति की सीमाओं को संसद के विधायी क्षेत्र में अतिक्रमण करने नहीं देना चाहता। अदालत ने कहा था कि संसद ही आदर्श मंच है जहां समलैंगिक विवाह को कानूनी दर्जा देने पर बहस हो सकती है और कानून पारित हो सकते हैं।

बहुमत का मतभेद

संविधान पीठ के तीन न्यायाधीशों के बहुमत ने मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ के इस विचार से असहमति जताई कि सरकार को कम से कम समलैंगिक दंपतियों को ‘सिविल यूनियन’ का दर्जा देना चाहिए, क्योंकि ऐसा कोई अवधारणा वैधानिक कानून द्वारा समर्थित नहीं थी।

पुनर्विचार याचिका के महत्वपूर्ण बिंदु

पुनर्विचार याचिकाओं में कहा गया कि बहुमत का निर्णय कई मोर्चों पर स्वयं का विरोधाभास करता है। एक ओर संविधान पीठ ने कहा कि संसद ने 1954 के विशेष विवाह अधिनियम के तहत विवाह को एक संस्था के रूप में सामाजिक दर्जा दिया, लेकिन अंततः यह निष्कर्ष निकाला कि विवाह की शर्तें राज्य से स्वतंत्र रूप से निर्धारित होती हैं और विवाह का दर्जा राज्य द्वारा नहीं दिया गया है।

पुनर्विचार याचिका का जोर

याचिकाकर्ताओं ने संविधान पीठ से अनुरोध किया कि समलैंगिक विवाह को 1954 के अधिनियम के दायरे में शामिल किया जाए। याचिका ने जोर दिया कि विवाह का अधिकार एक मौलिक अधिकार है।पुनर्विचार याचिका में कहा गया- कोई भी अनुबंध या राज्य की जबरदस्ती की कार्रवाई किसी वयस्क के मौलिक विवाह अधिकार को सीमित नहीं कर सकती।

1954 अधिनियम और समलैंगिकता का समय

पुनर्विचार याचिकाओं में बताया गया कि 1954 अधिनियम ने उस अवधि में समलैंगिक विवाह को इसके दायरे से बाहर रखा था जब समलैंगिकता को एक “दुर्गुण” और अपराध माना जाता था। याचिका में कहा गया कि न्यायिक हस्तक्षेप के बिना समान भागीदारी, गरिमा, और बंधुत्व के आदर्श समलैंगिक समुदाय के लिए झूठे बने रहेंगे।

न्यायालय का दायित्व

याचिकाओं में उल्लेख किया गया कि यह स्वयं सुप्रीम कोर्ट था जिसने समलैंगिकता को अपराधमुक्त किया। याचिका में कहा गया -बहुमत के निर्णय ने समलैंगिक दंपतियों के प्रति उच्चतम न्यायालय के संवैधानिक दायित्वों को पूरा नहीं किया ।

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